Santhara tradition and the death of innocent Viyana: आस्था, परंपरा और कानून के बीच फंसी एक मासूम जिंदगी
May 3, 2025
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मध्य प्रदेश के इंदौर में हाल ही में सामने आई एक घटना ने न सिर्फ समाज को झकझोर कर रख दिया, बल्कि धार्मिक परंपराओं और बच्चों के अधिकारों
मध्य प्रदेश के इंदौर में हाल ही में सामने आई एक घटना ने न सिर्फ समाज को झकझोर कर रख दिया, बल्कि धार्मिक परंपराओं और बच्चों के अधिकारों को लेकर नई बहस छेड़ दी है। तीन साल की मासूम बच्ची वियाना की मौत एक विशेष धार्मिक प्रथा के पालन के दौरान हुई, जिसे ‘संथारा’ या ‘सल्लेखना’ कहा जाता है। यह कोई सामान्य व्रत नहीं, बल्कि एक ऐसा संकल्प होता है जिसमें व्यक्ति भोजन और पानी का त्याग कर मृत्यु की ओर स्वेच्छा से अग्रसर होता है।
यह घटना 21 मार्च 2025 को हुई, जब वियाना नामक बच्ची की मृत्यु हुई। यह जानकारी बाद में तब सार्वजनिक हुई जब अमेरिका के संगठन “गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स” ने वियाना को दुनिया की सबसे कम उम्र की संथारा लेने वाली व्यक्ति के रूप में मान्यता दी।
क्या होती है संथारा या सल्लेखना?
संथारा (जिसे सल्लेखना भी कहा जाता है) जैन धर्म की एक परंपरा है जिसमें व्यक्ति जीवन के अंतिम चरण में स्वेच्छा से खाना-पीना त्याग देता है। इसे एक आध्यात्मिक तप माना जाता है, जिससे आत्मा को शुद्ध करने और मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में बढ़ने का मार्ग माना जाता है।
संथारा केवल अत्यधिक वृद्ध, बीमार या जीवन से पूरी तरह विरक्त व्यक्ति द्वारा लिया जाता है, जो पूरी मानसिक और शारीरिक समझ के साथ यह निर्णय लेते हैं। जैन धर्म के अनुयायियों के लिए यह एक सम्मानजनक मृत्यु मानी जाती है, जिसमें इच्छाओं, मोह-माया और शरीर से मुक्ति का रास्ता अपनाया जाता है।
लेकिन क्या एक 3 साल की बच्ची ऐसा फैसला ले सकती है?
यही सवाल इस पूरी घटना को विवादास्पद बना देता है। एक तीन साल की बच्ची के पास न तो निर्णय लेने की क्षमता होती है, न ही वह यह समझ सकती है कि “संथारा” जैसे कठिन और जीवन समाप्त कर देने वाले व्रत का क्या अर्थ है।
यह स्पष्ट है कि यह निर्णय वियाना का नहीं, बल्कि उसके माता-पिता – पीयूष जैन और वर्षा जैन – का था। यह सवाल उठता है कि क्या धार्मिक परंपराओं के नाम पर कोई भी माता-पिता अपने बच्चे के जीवन पर ऐसा फैसला ले सकते हैं?
कानूनी स्थिति क्या कहती है?
2015 में राजस्थान हाई कोर्ट ने सल्लेखना को आत्महत्या की श्रेणी में रखते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया था। अदालत का तर्क था कि जीवन को खत्म करने का यह तरीका संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन करता है। हालांकि, कुछ ही समय बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उस फैसले पर रोक लगा दी और तब से संथारा को एक धार्मिक अधिकार माना जाने लगा।
लेकिन इस मामले में मामला और भी जटिल हो जाता है क्योंकि यह एक नाबालिग बच्ची से जुड़ा है। भारतीय कानून के तहत 18 साल से कम उम्र के बच्चों को जीवन से जुड़े ऐसे निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता। यहां तक कि उनके माता-पिता को भी ऐसा निर्णय लेने का कानूनी अधिकार नहीं है जिससे बच्चे की जान जा सकती है।
समाज में हो रही प्रतिक्रिया
इस घटना के सामने आने के बाद देशभर में बहस तेज हो गई है। सोशल मीडिया पर हजारों लोगों ने बच्ची की मौत को ‘मानवाधिकार का उल्लंघन’ बताया है। कई बाल अधिकार संगठनों ने मांग की है कि इस मामले की गहन जांच होनी चाहिए और बच्ची के माता-पिता के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
वहीं दूसरी ओर, कुछ धार्मिक संगठनों का कहना है कि यह जैन धर्म की परंपरा है और इसमें बाहरी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
क्या धार्मिक आस्था के नाम पर बच्चों के जीवन से खेला जा सकता है?
यह सबसे अहम सवाल है जो इस घटना के बाद खड़ा हुआ है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता है, लेकिन क्या यह स्वतंत्रता किसी की जिंदगी छीनने तक जा सकती है – खासकर तब जब वह व्यक्ति बच्चा हो, जो अपना भला-बुरा भी नहीं समझ सकता?
संथारा जैसे आध्यात्मिक निर्णय को लेने के लिए मानसिक परिपक्वता और आत्म-ज्ञान आवश्यक है, जो एक तीन साल की बच्ची में असंभव है।
निष्कर्ष
वियाना की मौत सिर्फ एक बच्ची की मौत नहीं है, यह हमारे समाज, हमारी धार्मिक परंपराओं और हमारे कानूनों की संवेदनशीलता की परीक्षा भी है।
धार्मिक विश्वास और आध्यात्मिकता जीवन में जरूरी हैं, लेकिन जब आस्था किसी मासूम की जान लेने लगे, तो हमें रुककर यह सोचना होगा कि क्या हम सही दिशा में हैं।
बच्चों का बचपन, उनका जीवन, उनकी हंसी – यह सब किसी भी परंपरा या व्रत से कहीं अधिक कीमती है। वियाना की मौत एक चेतावनी है – एक ऐसी चेतावनी जिसे हमें अनसुना नहीं करना चाहिए।