सुप्रीम कोर्ट की सख्ती: डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने का आदेश बनेगा रिश्वतखोरी पर लगाम
May 2, 2025
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भारत की सर्वोच्च अदालत ने हाल ही में फार्मा कंपनियों की अनैतिक मार्केटिंग रणनीतियों और डॉक्टरों के साथ उनके कथित अनुचित संबंधों को लेकर गहरी चिंता जताई है।
भारत की सर्वोच्च अदालत ने हाल ही में फार्मा कंपनियों की अनैतिक मार्केटिंग रणनीतियों और डॉक्टरों के साथ उनके कथित अनुचित संबंधों को लेकर गहरी चिंता जताई है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि अगर डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखना कानूनी रूप से अनिवार्य कर दिया जाए, तो इससे चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त रिश्वतखोरी और ब्रांडेड दवाओं की महंगाई पर नियंत्रण पाया जा सकता है। अदालत ने इस मुद्दे पर 24 जुलाई को अगली सुनवाई तय की है, और यह मामला अब पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया है।
क्या हैं जेनेरिक दवाएं?
जेनेरिक दवाएं वे होती हैं जिनमें वही सक्रिय तत्व होते हैं जो ब्रांडेड दवाओं में होते हैं, लेकिन उनकी कीमत कहीं कम होती है। ये दवाएं गुणवत्ता में किसी तरह से कम नहीं होतीं और मरीजों को किफायती इलाज का विकल्प देती हैं। भारत में फार्मा सेक्टर में हजारों जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं, लेकिन डॉक्टर अक्सर कंपनियों के प्रभाव में आकर महंगी ब्रांडेड दवाएं लिखते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी क्यों अहम है?
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी ऐसे समय पर आई है जब चिकित्सा पेशे में पारदर्शिता और नैतिकता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। कोर्ट ने साफ कहा कि:
“अगर डॉक्टरों को केवल जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए बाध्य किया जाए, तो फार्मा कंपनियों द्वारा रिश्वत देकर महंगी और तर्कहीन दवाएं लिखवाने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाई जा सकती है।”
राजस्थान सरकार के एक आदेश का हवाला देते हुए कोर्ट ने यह भी बताया कि वहां इस तरह का निर्देश पहले ही लागू हो चुका है, और इसका सकारात्मक असर भी देखा गया है।
रिश्वतखोरी की जड़ में फार्मा कंपनियां?
सुप्रीम कोर्ट की पीठ—जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता शामिल हैं—ने यह बात स्पष्ट रूप से कही कि फार्मा कंपनियां डॉक्टरों को महंगे गिफ्ट्स, विदेशी ट्रिप्स, कॉन्फ्रेंस स्पॉन्सरशिप और अन्य लालच देकर अपनी ब्रांडेड दवाएं प्रमोट करवाती हैं। इससे न केवल मरीजों पर आर्थिक बोझ बढ़ता है, बल्कि कई बार गलत दवाओं के उपयोग से स्वास्थ्य जोखिम भी होता है।
मरीजों पर पड़ता है असर
जब डॉक्टर ब्रांडेड और महंगी दवाएं लिखते हैं, तो इसका सीधा असर मरीजों की जेब पर पड़ता है। खासकर ग्रामीण और निम्न आय वर्ग के लोग इससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। अगर जेनेरिक दवाएं लिखना अनिवार्य हो जाता है, तो इलाज सस्ता और सुलभ हो सकता है।
क्या है सरकार की भूमिका?
भारत सरकार पहले से ही जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिए ‘प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना’ चला रही है, जिसके तहत सस्ती दवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। इसके बावजूद, प्राइवेट डॉक्टरों और अस्पतालों में जेनेरिक दवाएं लिखने की प्रवृत्ति बहुत कम है। अगर सुप्रीम कोर्ट की दिशा में कोई ठोस नीति बनती है, तो यह सरकारी प्रयासों को मजबूती दे सकती है।
डॉक्टरों और मेडिकल संघों की प्रतिक्रिया
इस प्रस्ताव को लेकर डॉक्टरों के बीच मिश्रित प्रतिक्रियाएं हैं। कुछ डॉक्टर मानते हैं कि जेनेरिक दवाएं लिखना सही दिशा में कदम है, लेकिन गुणवत्ता की गारंटी सुनिश्चित होनी चाहिए। वहीं, कुछ मेडिकल संघों का तर्क है कि जेनेरिक दवाओं में गुणवत्ता में अंतर हो सकता है और ब्रांडेड दवाओं की विश्वसनीयता अधिक होती है।
आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी महज एक सुझाव नहीं बल्कि एक नई स्वास्थ्य नीति की दिशा में पहला कदम हो सकता है। अगर डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया जाता है, तो:
इलाज सस्ता होगा
फार्मा कंपनियों की रिश्वत संस्कृति रुकेगी
मरीजों का विश्वास स्वास्थ्य प्रणाली पर बढ़ेगा
चिकित्सा क्षेत्र में नैतिकता मजबूत होगी
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट की यह पहल न केवल फार्मा कंपनियों की मनमानी पर रोक लगाने का प्रयास है, बल्कि यह आम लोगों को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण दवाएं उपलब्ध कराने की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि 24 जुलाई की सुनवाई में क्या फैसला आता है और केंद्र सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है।