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Phule Movie Review: सिनेमा और समाज की आत्मा जिंदा रखने के लिए ‘फुले’ जैसी फिल्में जरूरी

  • April 25, 2025
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फुले फिल्म में एक ऐसा डायलॉग है जो आज भी हमारे समाज की सच्चाई को बयान करता है: “हमारे देश में लोगों को धर्म के नाम पर लड़वाना

Phule Movie Review: सिनेमा और समाज की आत्मा जिंदा रखने के लिए ‘फुले’ जैसी फिल्में जरूरी

फुले फिल्म में एक ऐसा डायलॉग है जो आज भी हमारे समाज की सच्चाई को बयान करता है: “हमारे देश में लोगों को धर्म के नाम पर लड़वाना सबसे आसान है, इसलिए लोगों का पढ़ा-लिखा होना बहुत जरूरी है।” इस डायलॉग के जरिए फिल्म ये बताती है कि ज्योतिबा फुले को सवा सौ साल पहले कितना गहरा ज्ञान था, जो उन्होंने समाज में फैली अंधविश्वास और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। आज हम जिस शिक्षा के अधिकार को समझते हैं, वह फुले की बदौलत है, जिनकी कहानी यह फिल्म दिखाती है। यह फिल्म अपने विचारों से ज्यादा प्रभाव डालती है, इसमें लात-घूंसों वाला एक्शन नहीं है, बल्कि विचारों का एक्शन है। इसमें वह थ्रिल नहीं है जो आम फिल्मों में होता है, लेकिन जो है वह गहरे स्तर पर महसूस किया जाता है। यह फिल्म हमें यह एहसास कराती है कि सिनेमा की आत्मा जिंदा है, और ऐसे सिनेमा की समाज में बहुत जरूरत है, जो हमें यह बताए कि हम जिंदा हैं।

कहानी

फुले की कहानी महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले के संघर्ष की गाथा है। ज्योतिबा ने समाज के विरोध के बावजूद अपनी पत्नी को शिक्षा दी और फिर समाज की अन्य लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया। यह सब उस दौर में हुआ, जब लड़कियों को पढ़ाना पाप माना जाता था, और समाज में बाल विवाह, विधवा का मुंडन, और छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथाएं जिंदा थीं। फिल्म दिखाती है कि ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी ने इन प्रथाओं को चुनौती दी और समाज में बदलाव लाने के लिए कड़ा संघर्ष किया। यही इस फिल्म की कहानी है, जो आपको थिएटर में जरूर देखनी चाहिए।

फिल्म कैसी है?

‘फुले’ एक महत्वपूर्ण फिल्म है। यह फिल्म कुछ लोगों को थोड़ी धीमी लग सकती है, लेकिन यह फिल्म का मिजाज है, क्योंकि यह कहानी करीब सवा सौ साल पुरानी है। हालांकि, फिल्म में कई ऐसे पल होते हैं जो आपकी दिलचस्पी बनाए रखते हैं। फिल्म के परफॉर्मेंस इतने जबरदस्त हैं कि आपको यह फिल्म देखना जरूरी लगता है। जब आप देखते हैं कि उस समय के समाज में ऊंची जाति के लोग नीची जाति के लोगों की परछाई से भी डरते थे, तो हैरान रह जाते हैं।

फिल्म समाज में फैली बुराईयों को सटीक तरीके से दिखाती है और बराबरी की बात करती है। यह फिल्म हमें यह एहसास कराती है कि हमारे देश में ऐसे वीर भी हुए हैं, जिन्होंने समाज को बदलने की कोशिश की। यह फिल्म आज की फिल्मों जैसी नहीं है,

लेकिन हमें इसे देखना चाहिए क्योंकि ऐसी फिल्में समाज के लिए बहुत जरूरी हैं। जब तक हम ऐसी फिल्मों को देखेंगे नहीं, तब तक ऐसी फिल्में बनेंगी भी नहीं, और उनका बनना सिनेमा और समाज के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

अभिनय

फिल्म के दोनों प्रमुख अभिनेता, प्रतीक गांधी और पत्रलेखा, ने कमाल का अभिनय किया है। दोनों ने अपने करियर का बेहतरीन परफॉर्मेंस दिया है और दोनों ही नेशनल अवॉर्ड के हकदार हैं। प्रतीक गांधी ने ज्योतिबा फुले के किरदार को पूरी ईमानदारी से निभाया है। जब तक आप उन्हें फिल्म में ज्योतिबा फुले के रूप में नहीं देखेंगे, तब तक आपको विश्वास नहीं होगा कि वह ऐसा किरदार निभा सकते हैं। प्रतीक ने इस किरदार को न केवल जीवित किया, बल्कि उसे अपनी पूरी शख्सियत से जिया है। वहीं, पत्रलेखा ने सावित्री बाई फुले का किरदार निभाया है और उन्होंने इसे पूरी तरह से जिया है। एक सीन में, जब एक व्यक्ति उन्हें धमकी देता है कि अगर उन्होंने बच्चियों को पढ़ाना बंद नहीं किया तो वह उनके पति ज्योतिबा फुले को मार डालेगा, तो पत्रलेखा उसे एक कहानी सुनाती हैं और उसे थप्पड़ मारती हैं। यह वह क्षण है, जब महिला सशक्तिकरण की शुरुआत होती है।

पत्रलेखा का लुक, उनकी साड़ी पहनने की शैली, उनके हाव-भाव, सब कुछ उन्हें सावित्री बाई फुले बना देता है। उनका अभिनय इतना प्रभावी है कि फिल्म के पहले ही सीन से वह दर्शकों पर अपना गहरा असर छोड़ देती हैं। पत्रलेखा को इस फिल्म के लिए नेशनल अवॉर्ड मिलना चाहिए, लेकिन असली अवॉर्ड उन्हें तब मिलेगा जब बड़े फिल्ममेकर उनके टैलेंट को पहचानेंगे। फिल्म में सभी सपोर्टिंग एक्टर्स ने भी अच्छा काम किया है और उन्होंने उस दौर की सटीक झलक दिखा दी है।

निर्देशन

‘फुले’ के निर्देशक अनंत महादेवन ने फिल्म का निर्देशन शानदार तरीके से किया है। अनंत महादेवन, जो एक बेहतरीन अभिनेता भी हैं, ने अपनी इस फिल्म में एक ऐसा सिनेमा पेश किया है जो याद रखा जाएगा। उन्होंने फिल्म को बैलेंस तरीके से प्रस्तुत किया है, ताकि दर्शक बोर न हों और जो महत्वपूर्ण बातें हैं, वे सही तरीके से दर्शाई जा सकें। उन्होंने मुअज्जम बेग के साथ मिलकर इस फिल्म की पटकथा लिखी है और दोनों ने मिलकर इसे इस तरह से पेश किया कि यह फिल्म समाज के लिए बेहद जरूरी बन गई।

संगीत

फिल्म का संगीत रोहन प्रधान और रोहन गोखले ने दिया है, जो फिल्म के प्रभाव को और बढ़ा देता है। जब गाने आते हैं तो वे फिल्म की भावनाओं को और गहरे तरीके से दर्शाते हैं। यह संगीत आपको थिएटर से बाहर आकर भी याद रहेगा और आप इसे सुनने का मन करेंगे।

‘फुले’ एक ऐसी फिल्म है, जो सिनेमा के वास्तविक रूप को दर्शाती है और समाज में बदलाव की जरूरत को उजागर करती है।

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