भारत-पाक सीमा पर खौफ के साए में जिंदगी: जर्जर बंकरों में सहमी रातें और दहशत से भरे दिन
- May 6, 2025
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पहल्गाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर तनाव चरम पर पहुंच गया है। इस तनाव का सबसे बड़ा असर सीमा से सटे
पहल्गाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर तनाव चरम पर पहुंच गया है। इस तनाव का सबसे बड़ा असर सीमा से सटे
पहल्गाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर तनाव चरम पर पहुंच गया है। इस तनाव का सबसे बड़ा असर सीमा से सटे गांवों में रहने वाले आम लोगों पर पड़ा है। जम्मू-कश्मीर और पंजाब की सीमा के पास बसे गांवों में रातें खौफ में गुजर रही हैं। गोलियों की गूंज और बमों की आशंका ने गांववालों की नींद छीन ली है।
भारत के उन गांवों की बात करें जो पाकिस्तान की चौकियों से महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर हैं, तो हालात बेहद चिंताजनक नजर आते हैं। इन गांवों के लोग किसी भी संभावित हमले के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी चिंता उन बंकरों की है जो सालों पहले युद्ध के समय लोगों की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे। आज ये बंकर जर्जर हालत में पहुंच चुके हैं।
एक ओर तनाव बढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इन बंकरों की दीवारें दरक रही हैं। कई जगहों पर बंकरों की छतें झुक चुकी हैं, और अंदर घुसते ही दम घुटने लगता है। फिर भी लोग इन बंकरों को साफ कर, उन्हें थोड़ी-बहुत मरम्मत करके इस्तेमाल के काबिल बनाने में जुटे हैं, क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं है।
भारत-पाकिस्तान के बीच जब भी युद्ध जैसे हालात बनते हैं, सबसे ज्यादा मार सीमा पर बसे आम नागरिकों पर पड़ती है। घर छोड़कर भागना कोई हल नहीं होता, क्योंकि ज़िंदगी की सारी पूंजी वहीं होती है। ऐसे में बंकर ही एकमात्र सहारा होते हैं। लेकिन जब वही बंकर टूट चुके हों, तो सुरक्षा का यह अहसास भी डर में बदल जाता है।
गांववालों का कहना है कि उन्होंने कई बार स्थानीय प्रशासन से इन बंकरों की मरम्मत की मांग की है, लेकिन अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। वे यह भी कहते हैं कि “हमें तो सिर्फ एक सुरक्षित जगह चाहिए, जहां हम अपने बच्चों को लेकर छिप सकें।”
सीमा से सटे गांवों में दिन तो किसी तरह गुजर जाता है, लेकिन रातें सबसे कठिन होती हैं। बंकरों में सिमटी जिंदगियां हर पल यही सोचती हैं कि कहीं अचानक गोलियों की बौछार न शुरू हो जाए। कुछ गांवों में लोग अपने बच्चों को लेकर पहले से बंकरों में ही सो रहे हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर भागना न पड़े।
बुजुर्ग बताते हैं कि 1965 और 1971 के युद्ध के समय जैसी डरावनी रातें अब फिर से लौट आई हैं। “हर आहट पर दिल धड़कता है, और हर दिन लगता है कि शायद यह आखिरी हो,” एक स्थानीय निवासी की आंखों में डर साफ नजर आता है।
इन गांवों में महिलाओं और बच्चों पर संकट का सबसे गहरा असर पड़ा है। स्कूल बंद हो चुके हैं या फिर खाली हैं, क्योंकि अभिभावक अपने बच्चों को बाहर भेजने से डर रहे हैं। महिलाएं अपने घरों के साथ-साथ बंकरों को भी सुरक्षित बनाने में लगी हुई हैं। कई घरों ने खाने-पीने का सामान बंकरों में स्टोर करना शुरू कर दिया है, ताकि जरूरत पड़ने पर बाहर न निकलना पड़े।
स्थानीय प्रशासन ने स्थिति पर नजर बनाए रखने की बात कही है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। गांववाले खुद ही बंकरों की मरम्मत में जुटे हैं। केंद्र और राज्य सरकार से गुहार लगाई गई है कि बंकरों को फिर से मजबूत किया जाए और इन गांवों में जरूरी सुरक्षा इंतजाम किए जाएं।
सीमावर्ती गांवों में लोग दोहरी जंग लड़ रहे हैं—एक तरफ संभावित युद्ध और दूसरी तरफ लापरवाह व्यवस्था। जर्जर बंकर और भयभीत लोग इस बात का प्रतीक हैं कि युद्ध की कीमत सिर्फ सैनिक ही नहीं, आम नागरिक भी चुकाते हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसे संवेदनशील इलाकों में तुरंत कार्रवाई करते हुए बंकरों की मरम्मत करवाए और गांववासियों को सुरक्षा का भरोसा दे।