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Child custody will not be decided on the basis of religion: बॉम्बे हाई कोर्ट का बड़ा फैसला

  • April 29, 2025
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बच्चे की कस्टडी से जुड़े मामलों में हमेशा से संवेदनशीलता और न्यायिक विवेक की आवश्यकता रही है। हाल ही में बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते

Child custody will not be decided on the basis of religion: बॉम्बे हाई कोर्ट का बड़ा फैसला

बच्चे की कस्टडी से जुड़े मामलों में हमेशा से संवेदनशीलता और न्यायिक विवेक की आवश्यकता रही है। हाल ही में बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए यह स्पष्ट किया कि किसी भी बच्चे की कस्टडी का फैसला केवल धर्म के आधार पर नहीं किया जा सकता। इस फैसले ने पारिवारिक कानूनों में धर्म आधारित दावों की सीमाओं को एक बार फिर उजागर किया है।

मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक मुस्लिम पिता द्वारा दायर की गई याचिका से जुड़ा है। पिता ने अदालत में दलील दी थी कि इस्लामिक कानून के तहत वह अपनी तीन वर्षीय बेटी के “प्राकृतिक अभिभावक” हैं और इस आधार पर उन्हें बच्ची की कस्टडी दी जानी चाहिए। पिता ने अपने धार्मिक अधिकारों का हवाला देते हुए बच्ची की कस्टडी की मांग की थी।

हालांकि, अदालत ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि कस्टडी का फैसला केवल धर्म के आधार पर नहीं किया जा सकता। बच्चे के सर्वोत्तम हित (Best Interest of the Child) को प्राथमिकता देना अदालत का कर्तव्य है।

बॉम्बे हाई कोर्ट का बड़ा फैसला

कोर्ट का महत्वपूर्ण दृष्टिकोण
बॉम्बे हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि किसी भी बच्चे के भले के लिए कस्टडी तय की जाती है, न कि केवल माता-पिता के धर्म या धार्मिक कानूनों के अनुसार। अदालत ने कहा कि बच्चों के मामलों में “धर्म” एक कारक हो सकता है, लेकिन यह निर्णायक कारक नहीं होना चाहिए।

कोर्ट ने जोर दिया कि बच्ची की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक भलाई को प्रमुखता दी जानी चाहिए। कस्टडी के लिए माता या पिता की क्षमता, बच्ची की भावनात्मक ज़रूरतें, स्थिरता का वातावरण और पालन-पोषण की गुणवत्ता जैसी बातें अधिक महत्वपूर्ण हैं।

धर्म बनाम बच्चे का सर्वोत्तम हित
अदालतों में जब भी कस्टडी का मामला आता है, तो मूल सिद्धांत यही होता है कि बच्चे का सर्वोत्तम हित क्या है। इस सिद्धांत के तहत कोर्ट कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करती है, जैसे:

  • बच्चा किसके साथ अधिक सुरक्षित और खुश रहेगा।
  • किस अभिभावक के पास बेहतर आर्थिक और सामाजिक स्थिति है।
  • बच्चा किसके साथ अधिक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता है।
  • कौन अभिभावक बच्चे की शिक्षा और समग्र विकास के लिए बेहतर अवसर प्रदान कर सकता है।

इस प्रकरण में भी, अदालत ने पाया कि केवल मुस्लिम कानून का हवाला देना पर्याप्त नहीं था। बच्चे की समग्र भलाई को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने पिता की याचिका को खारिज कर दिया।

समाज के लिए संदेश
यह फैसला उन सभी लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है जो पारिवारिक मामलों में धार्मिक कानूनों के हवाले से अपने अधिकार जताने का प्रयास करते हैं। भारतीय न्याय प्रणाली संविधान के तहत काम करती है, जो धर्मनिरपेक्षता और समानता के सिद्धांतों पर आधारित है।

बच्चों की कस्टडी के मामलों में न्यायालय धर्म से ऊपर उठकर केवल बच्चे के हितों को प्राथमिकता देता है। माता-पिता के अधिकार तभी मान्य होते हैं जब वे बच्चे की भलाई से मेल खाते हों।

निष्कर्ष
बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमें यह सिखाता है कि बच्चों के मामलों में हमें भावनाओं, धार्मिक मान्यताओं या पारंपरिक अधिकारों से ऊपर उठकर केवल और केवल उनके भविष्य और भलाई को ध्यान में रखना चाहिए।

अदालत ने यह उदाहरण प्रस्तुत किया है कि न्याय का आधार समानता, संवेदनशीलता और बच्चे के सर्वोत्तम हित होने चाहिए, न कि केवल धार्मिक प्रथाएं।

आने वाले समय में यह निर्णय परिवारिक कानूनों में एक नई सोच और संवेदनशील दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करेगा, जहां बच्चे को प्राथमिकता दी जाएगी और उसका भविष्य सुरक्षित किया जाएगा।

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